क्यों मुनासिब यूँ तेरा शहर लगा

Last updated on Thursday, August 22nd, 2019



मेरी हसरते तेरे मुकाम की मोहताज नहीं 
मै जीता हूँ की बस साँसो को 
आने- जाने का ख्याल होता रहे  


मुझे किसी के दिल की आवाज अक्सर 
दस्तक तो देती है  
क्यों यूँ मै हर शाम से दरवाजा
अब खुला रखता हूँ   


यूँ ! शराफ़त की बन्दिश लगी ना होती 
यूँ ! हर मोड़ पे तेरा मिलना नहीं होता 
यूँ!  जिंदगी जब घूम के आये सारा जहां 
क्यों मुनासिब हमे तेरा शहर लगा 






सुशील कुमार 









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