खुशबू से सरोकार शहर अब नहीं होता

Last updated on Thursday, August 22nd, 2019

 
फूल को क्या पता था 
उसकी खुशबू से सरोकार शहर 
अब नहीं होता 
हद तो हो गयी जब मय्यत से उठकर 
बागबान भी दुहरा होकर बैठ गया 

ऐ खुदा ये दौर कब रुकेगा 
अपना ही अपने को गैर कहने से जब रुकेगा 
घर तो ये मेरा भी था 
मुझे घर से बेघर करने का दौर ये कब रुकेगा 

शाम कर लूँगा बशर कहीं बिराने में 
मगर तेरे अपनों का क्या होगा 
और में पहले भी शिकार हुआ हूँ 
नजरो का तेरी 
वफ़ाई में सर कट भी जाय तो डर क्या होगा ?

@सुशील 

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