Last updated on Sunday, February 23rd, 2020
हर एक सुबह
एक गाँव , एक शहर
सड़क पर निकल जाता है
गाँव साइकिल पर
काम की तलाश में
और शहर पैदल
मन को सकून देने वाली
समीर की तलाश में
गाँव अपनेपन को शहर में ढूँढता है
शहर सड़को पे निकलकर
गाँवों को देखता है
और बढ़ती धूप के साथ
गाँव और शहर का अंतर बढ़ा जाता है ।
पैड की छाँव में बच्चे को लेटाकर
पत्थर तोड़ती रही है
गाँव की अधूरी मज़बूरी
तो पत्थर जोड़कर शहर
बनाता रहा है
गाँव का अधूरा भविष्य
गाँव तपती धूप के साथ
पसीने की बूँदो से
ठण्डक जोड़ता रहा
शहर शीशे के घरों में
मैले पानी की बूँदो से
ठण्डक जोड़ता रह गया
गाँव हर शाम को
सामान समेटकर
गारा -मिट्टी की दीवारो
घाँस -फूँस की छत
के नीचे सो जाता है
शहर देर रात तक
रंगीन प्रकाश के नीचे नाचता है
फिर ईंट -पत्थर की दीवारो के बीच
सोने चला जाता है
यूँ हर दिन , हर एक सुबह
एक गाँव , एक शहर
सड़क पर निकल जाता है
डा० सुशील कुमार