Dr Sushil Kumar

University to Cinema Hall_ यूनिवर्सिटी से सिनेमा हॉल तक

Last updated on Thursday, August 22nd, 2019

आज फिर उन सभी की इच्छा रखने पर , मै पिक्चर देखने के लिए तैयार हो गया, फिर मन मै वो ही कशमश थी लेकिन जल्दी ही मेने उससे अपना पीछा छुड़ाया और उस सोच को पीछे धक्का देकर, आगे कि और दोस्तों के साथ निकल लिया। आज फिर पता था कि मेरा ये १०० रुपए का नोट जल्दी ही ख़तम हो जायेगा जिसको मेने पेपर आदि खरीदने के लिए रखा हुआ था। पर क्या करे पिक्चर तो देखनी ही है , दोस्तों का साथ भी तो नहीं छोड़ सकता, नहीं तो फिर उसी तरहा से कमेंट मेरे लिए  भी पास होने लगेगें जेसे राजेश के लिए होते है । हाँ….. एक दिन मेने भी तो उस पर कमेंट मारा था , कितना खुश हुआ था जेसे अपनी बदहाली पर एक सफ़ेद चादर ओढ़ा दी हो। शायद, उसको मुझसे उम्मीद भी नहीं थी, वो बात अलग है कि रात में अपने कमरे में जाकर मुझको भी अच्छा नहीं लगा था। क्योंकि मैं जानता था कि किस तरह वो ट्यूशन पढ़ा कर अपनी पढ़ाई का खर्च उठा रहा था। अपने घर पर भी तो हर महीने पैसे भेज देता है । अभी कुछ महीनो के बाद ही तो उसकी बहन की शादी है । हाँ बहन की शादी….. कितना खर्च करना होता है , बहुत काम होता है सचमुच ।

यूनिवर्सिटी के गेट पर आते तो रिक्शा वाले को आवाज देकर पूछते , उससे मोल -भाव करते , बता तेरी गरीबी की कीमत क्या है ? कितने लेगा वहाँ तक मुझे खीचने के, वहाँ तक हमारा बोझ पहुंचाने  पर, और उसके कंधे पर बेठ जाते जेसे उसको १० रुपए का नोट देकर खरीद लिया हो । कभी-कभी तो जल्दी के चक्कर मैं यह तक पता नहीं चलता था कि किसी बूढ़े से तय कर लिया है । जो व्यक्ति अपनी सूखी हड्डियों का वजन नहीं खींच सकता वो तीन-चार का वजन केसे खीच लेगा । जिंदगी का कितना कड़वा सच मै देख रहा हूँ लकिन एक कठपुतली के जेसे बस दुसरो के इशारे पर ही नाच रहा हूँ । चाहते हुए भी आंखे नहीं खोल सकता ।

अभी एक महीने पहले कि ही बात है, हॉल मै जाने की जल्दी मै एक बूढ़े का रिक्शॉ तय कर लिया , और हम सब उस पर सवार , कुछ दूर ही चले थे कि उसको साँसे तेजी से चलने लगी, वो हाफ़ने लगा , उसने रिक्शा धीरे-धीरे चलाना शुरू कर दिया , लेकिन हम को तो रिक्शा तेज चाहिए था, उसकी साँसे नहीं, पिक्चर की जो जल्दी थी, उससे कहने लगे कि इतना समय बचा है और इतनी पिक्चर निकल जायेगी। पता नहीं और क्या- क्या। मै रिक्शा में मौन बेठा रहा , सोच रहा था कि दुबारा इस तरह से पिक्चर देखने नहीं आउंगा। और इसी उलझन में न जाने कब हाल आ गया और उस दिन अपनी पिक्चर देखने की प्यास को पानी पिलाया।

इस बात को अभी महीना भी नहीं बीता था कि फिर पिक्चर का प्रोग्राम बना और फिर में नत -मस्तक होकर साथ खड़ा हो गया । फिर वो ही यूनिवर्सिटी का गेट , फिर वो ही पिक्चर कि जल्दी, फिर से एक बूढ़े  का रिक्शा, और फिर ३-४ रिक्शा पर सवार, शायद ये रिक्शा वाला अभी बीमारी से उठा ही होगा। रिक्शा वाला हॉल की ऒर रिक्शा के पहिये बढ़ाता हैं और मैं अपने मन की, कशमकश , सभी कुछ पहले जैसा।

कितनी तेजी से चल रही थी वो बूढी टांगे उस रिक्शा के पेडल पर, शायद कही बच्चो की पिक्चर न निकल जाये। उस चढाव पर चढ़ते समय तो एक बार लगा जेसे बूढ़ा अब गिरा , अब गिरा । लेकिन कितनी मजबूती थी उन दो बूढ़े बीमार हाथो में। मैं चाहकर भी अपनी आंखे खोलने के लिया तैयार नहीं था । मैं जानता था कि मेरे आंखे खोलते ही सामने मेरे बूढ़े माँ-बाप का चेहरा होगा। ठीक वो भी तो इसी तरह मेहनत करके मुझको पढ़ा रहे हैं । उन बूढी आँखों मैं भी कुछ सपने हैं , और पता नहीं यूँ ही सोचते – सोचते कब पिक्चर हॉल आ गया।

एक हल्का सा रिक्शा का ब्रेक लगा, और सभी उतरे , अभी पिक्चर स्टार्ट  होने में १० मिनट थे, सभी के चेहरे पर एक कुटिल मुस्कान थी । लेकिन उस चेहरे पर जो अभी भी हाँफ रहा था, उसकी बूढ़ी आँखों में एक चमक थी । शायद जेसे हड्डियों से झांकती आंखे कह रही हो आख़िरकार मेने आज भी अपनी सवारी को ठीक समय पर उनकी मंजिल तक पहुंचा ही दिया। वो कांपते हाथो से पैसा लेकर वापिस धीरे -धीरे चल दिया, मैं बूत बना उसे देखता रहा जब तक कि वो दूर अंधेरे में दिखना बंद नहीं हो गया………………..

  

  

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