स्थायीत्व की खोज

जीवन के इस पथ पर  बढ़ा जा रहा हूँ  मौसम बदल रहे हैं  कभी वर्षा , कभी तूफान  तो कभी पतझड़ आ रहे हैं  सब वो ही है  वो ही निश्चित क्रम है  कुछ भी तो प्रकृति ने नहीं बदला  लेकिन बदल रहा है  मेरा स्वरूप  मेरा अस्तित्व  मेरी बिखरी कल्पनायें  मेरे अव्यवस्थित शब्द  “कितना बदल गया ...
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सौन्दर्यता

सौंदर्य,  सौंदर्य से ही विलासिता  जीवन का एकाकीपन  और वैराग्यता  सौन्दर्यता प्रकर्ति की  स्त्री की सौन्दर्यता रेगिस्तान में तपती रेत की  पतझड़ में सूखे पत्तो की  काले बादलो में  दौड़ती बिजली की सौन्दर्यता घुंघरूओं  में खनखनाहट की  रंग-बिरंगे फूलो में  महकती खुशबू  यौवन के उजाले में बिखरी  सौन्दर्यता  सूखे होठों पर  जीवन गीत की सौन्दर्यता सौन्दर्यता एक अनन्त विस्तार  ...
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लक्ष्य

बाधा हो पग- पग पर  ह्रदय में हो आशा  चेतन हो कितना भी आहत  विश्राम नहीं पथ पर  उज्जवल हो अभिलाषा  थक कर चूर हुए कभी  श्रम पथ पर  तो सम्पूर्ण कर्म भाव  प्रभु चरणो में  अर्पित कर देना  परम मानसिक  शुद्ध शारीरिक ऊर्जा  प्रयोग कर  लक्ष्य देखना, लक्ष्य भेदना  आगे बढ़ जाना  आगे बढ़ ...
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प्रेरणा

पग – पग हो बाधा   पर लक्ष्य देखना  आगे बढ़ जाना  गीता सार यहीं  प्रत्यक्ष समाना  आहत हो तो   फिर चल जाना  एकरूप देखना  आत्मविश्वास जगाना  ह्रदय में मात्र  एक भाव प्रेम रख  स्व प्रेरित होना  समर्पण करना  लक्ष्य प्राप्ति हेतू  कर्म सार हो  जीवन का मधुर  संगीत है गाना  
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यौवन

यौवन चंचल,  है मदभरा  भँवरे की गुंजन  फूलो की खशबू  दौड़ते -भागते हिरनों  सागर की उठती लहरो  सतरंगी इन्द्रधनुष  क्षितिज को छूने वाला  मनमोहक हरा- भरा  यौवन चंचल है यौवन उत्सुकता है  अनभिज्ञता , पारदर्शिता है ऊर्जावान रचनाकार है  खिलने दो , महकने दो  यौवन जीवन का उपहार है 
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बूढ़ा पैड सो गया !

खड़ा हूँ,  सूखे पैड सा,  मेरी शाखाओ पर रहने वाले  सारी रात चिं -चिं और  उछल -कूद करने वाले  पक्षियों ने अब घोंसले  दूर कहीं बना लिए है  हवा के झोंके भी अब  गर्दन घूमाने लगे है  लक्क्ड़हारा सुनहरे-सूखे तने पर  दबी आँखों से आस लगाए बैठा है बची शाखायें भी  रिश्तो सी टूटने लगी है  हाथो ...
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रिश्तो का दर्द

अब तो आदत सी हो गयी है  तुम बिन जीने की  रिश्तो के दर्द भी  अंधेरो में पीने की गिर जाता हूँ हर रोज़ साँवली शाम के आँचल में  तो उठता हूँ सरे शाम  कभी मयखानों से   हाल अच्छा है रहने दे अभी  होंगे रंग बाकी कई  देखने तेरी तस्वीर के अभी ढूंढता हूँ काली श्याह रातो ...
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पत्थर बनूँ कैसे ?

मिट्टी हूँ मै अभी  पत्थर बनूँ  कैसे ? बिखर ना जाऊं  ज़र्रे-ज़र्रे में कहीं  इस ज़र्रे को  पत्थर बनाऊं कैसे ?  ख़ामोश है वो  क्योंकि भगवान है वो  किसी शिल्पकार के हाथो  तराशा पत्थर है वो 
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स्कूल का पी-ओन सी -ऑफ रोबोट सूरज

स्कूल का पी-ओन  सी -ऑफ रोबोट सूरज  सवेरे ८ बजे आकर  खोल देता है दफ्तर  व्यवश्थित कर अपनी पैन्ट्री  पानी की बोतले, गिलास आदि  अध्यापक कक्ष में रख देता है सजाकर।   बैठ जाता है कभी  अपनी कुर्सी पर तो कभी  चहल कदमी दफ्तर में  बिरहा जैसे प्रेयसी , प्रियतम के दर्शन में।   पहली आदेशात्मक ...
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